Upagupta (Hindi)

I came across the poem Upagupta by Rabindranath Tagore on 10th grade. It was one of the poem on my English literature class. I guess, the story touched to the core of my own image of a good person – the discipline, the abstinence and the composure. I thought of not only translating this in Hindi but also giving it a poem form, just like Tagore ji has written.
So, here it is. Please keep in mind, I was only 15 years old at that time.

उपग़ुप्त | एक सच्चे सन्यासी की कहानी

सावन की पुलकित यामिनी
तुषार मलिन हुयी ज्योत्सना
जलयुक्त पवन के मध्य कहिँ
मेघ दिखा रहे रोद्र अपना

मथुरा की प्राचीर पास
धूल धरे धरा मे सुप्त
बुद्ध का वो प्रिय शिष्य
आदर्श प्रतिमा – उपगुप्त

प्रविश्य बन्द, बुझ चुके दीप
गहरी निद्रा मे लीन निवेश
पायल पैरो के गीत सुनाते
धारण किये वो अग्निवेश

हारोँ के मोती दँभ भरे
साँसो मे जैसे तुफान
आभुषणो मे दमकती थी
नृत्याँगना अद्वितीय जवान

पास जा सन्यासी के
किया उसने दीप नत
अतुल सुन्दरता से मोहित
हुइ थी वो बेमत

पीत प्रकाश अस्थिर नश्वर
ने किया भंग उसका शयन
सुन्दरी खो गयी प्रेम मे
देख उसके क्षमावान नयन

निर्जीव तेरी सुन्दरता से
मोहित हो बने प्राणवान
क्षमा करो मोहे हे त्यागी
तुम तो हो अति दयावान

सुन्दरता मे खोये उसकी
काँपते अधरो ने कही
शयन श्यामल धरा मे
तुम्हारे लिये नहिँ है सही

तेजस्वी तुम्हारी तेज
धुसरित ना हो धूल से
काँटे नही हैँ आश्रयदाता
कोमल नाजुक फुल के

मै हौऊ आभारी आपकी
ओ निष्ठावादी कुल के
चले यदि मेरे घर
सब भेद अपना भुल के

दयावान के चक्षु ने
बरसाये बुँद दया अविनासी
ग्रृह प्रस्थित हो हे सुन्दरी
समय देता नहीँ आजादी

आऊँगा मै साथ तुम्हारे
समय साथ हो समीचीन
अमर्ष अस्फुटीत आभा जिसकी
था वो इश्वर मे ही लीन
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संसार कोने से उठा
भयपूरित भयानक झँझावात
गगन ने फिर दिखाये अपने
रॉद्र रूप बिजली के दांत

अंगना अचानक काँप उठी
चोंक गया म्रुदुल गात
वर्ष चक्र मे आ गयी
गर्मी की वो गरम रात

अमराइयाँ महक उठी
अति रमणीय लगता शाम
प्रसन्न प्रसाद करता बचपन
आक्रांतित शाख थे जिस पर आम

रँग, रोगन, रोशनी
नये वस्त्र और उपहार
निवासी सभी गये थे जंगल
मनाने फुलो का त्यौंहार

चारो ओर गुंज रही
बच्चो की मनभावन हंसी
वीरान नगर को घूरता
था अम्बर मे स्थिर शशि

सूने शहर की गोद मे
चलता वो सन्यासी नव
आम्र शाखा मे प्यारी
उठ रही थी कोकिल रव

चल रहा था वो सन्यासी
करके पार प्रवेश द्वार
बैठा वो छाया पाके
आश्रय थी वही दीवार

छाया किसी की कुछ हिली
उपधान उसका प्राचीर चरण
कोई अबला कराहती थी
द्वार पर थी वो मरण

आंखो के अवशेष मात्र
देह पर दाग काली सारी
नगर वीमुख कर दी गई
कारण थी बस महामारी

उपकारी मन जाग उठा
करने कष्ट का समाधान
दौडा सन्यासी अबल ओर
बनके उसका प्रतिमान

दुख दुर करने जो आये
होता है वो रूप ईश
बैठ पास मे उसके
लिया घुटने मे पीडित शीश

कौन वह, यह जान चुका था
होठोँ को दिया नीर
नवचेतन नयन जागृत हुए
ढका लेप मे वह शरीर

सुन्दरता सारी ढल चुकी थी
ज्योँ शाख से टुटा पर्ण
दंभ सारा टूट गया था
हुआ देह श्रीहत, विवर्ण

नृत्यांगना ने पुछा – तुम
कौन हो? हे दयालु
नाम तुम्हारा क्या है – देव?
एक झलक मै उसकी पालुँ

सन्यासी धीरे से बोला
नाम का है मान कहाँ
समय सही यही है और
मै हुँ तुम्हारे साथ यहाँ

समय सही यही है और
मै हुँ तुम्हारे साथ यहाँ

राम अग्रवाल “मनु” 30-May-1988

Upagupta and Vasavadatta. Read the story at www.ragrawal.com

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