
मेरी पहली नौकरी
1998 की गर्मीयों की बात है। मैंने अभी-अभी इंदौर के देवी अहिल्या विश्वविद्यालय से अपना एमबीए पूरा किया था। हर नए ग्रेजुएट की तरह मुझे भी उम्मीद थी कि जल्द ही कोई अच्छी नौकरी मिल जाएगी।
हफ्ते बीत गए, पर किसी भी कम्पनी से कोई खबर ही नहीं आई। उन दिनों इंटरनेट तो था नहीं, आप एप्लीकेशन पोस्ट ऑफिस से भेजते और फिर इंतजार करते की कही से कोई जवाब आ जाए. मैं थोड़ा मायूस होकर अपने गाँव लौट आया। एक अच्छे कॉलेज से इंजीनियरिंग डिग्री और अब एमबीए होने के बावजूद, मैं बेरोज़गार था । परिवार में किसी को कोई दिक्कत नहीं थी। घर में दूकान था ही और उन्हें भी विश्वास था की आज नहीं तो कल मै कोई न कोई रास्ता निकाल लूंगा । दिल के कोने में मुझे भी यही लगता था, लेकिन इंतज़ार करना आसान नहीं था।
करीब एक महीने तक आवेदन भेजने और कहीं से कोई जवाब न आने के बाद, मैंने दिल्ली जाने का फैसला किया जहां मेरे कुछ दोस्त प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे थे. मै उनके साथ कमरा साझा कर सकता था. मुझे लगा, शायद दिल्ली में मौके ज्यादा मिलेंगे, वॉक-इन इंटरव्यूज़ में जा सकूँगा या ऐसे अवसर मिलेंगे जिनकी गाँव में खबर भी नहीं मिलती।
मैंने छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस में टिकट बुक कराया — वही ट्रेन जो जब से मुझे याद है, रायपुर को दिल्ली से जोड़ती रही है। ट्रेन का समय शाम करीब 4 बजे था, लेकिन हमेशा की तरह यह लेट थी। मेरा बड़ा भाई, जो मेरे लिए एक दोस्त जैसा रहा है, मुझे स्टेशन छोड़ने आया।
ट्रेन परिचित शहरों से गुज़र रही थी — भिलाई, दुर्ग, फिर राजनांदगांव। मैं S7 कोच में था, और जब हम राजनांदगांव पहुँचे, तब तक अंधेरा हो चुका था। आस-पास के लोग अपना खाना निकाल रहे थे, कुछ लोग प्लेटफॉर्म पर से नाश्ता खरीद रहे थे। मैं अब भी तय कर रहा था कि खाना खाऊँ या नहीं, तभी मुझे लगा जैसे किसी ने मेरा नाम पुकारा। बाहर चाय और नाश्ता बेचने वालो की आवाज के बीच मेरा नाम, शाया मेरे कान बज रहे होंगे । पहले मैंने अनसुना कर दिया, लेकिन फिर वही आवाज़ दोबारा आई — कोई पूछ रहा था कि क्या यह S7 है और मेरा नाम ले रहा था।
जिज्ञासावश, मैं दरवाजे तक गया और बाहर झाँका। एक जाना-पहचाना चेहरा दिखा। मै पहचान नहीं पा रहा, लेकिन फिर याद आया — वो मेरे जीजा जी के भाई साब है । शायद वर्षों पहले मिला था, लेकिन चेहरा बिलकुल जीजा जी जैसा था, इसलिए पहचान गया।
मैंने हाथ हिलाया, और वो मेरे पास आये । मुझे लगा शायद मेरी बहन ने अपने परिवार को बताया होगा कि मैं इस रास्ते से जा रहा हूँ, और वे खाना देने या मिलने आए हैं। ट्रेन के चलने का समय हो चुका था और ड्राइवर ने सायरन बजाया। उन्होंने जल्दी से कहा, “आपके गाँव से निकले के बाद आज ही एक चिट्ठी आयी है — एक नौकरी का आमंत्रण ।”
उन्हें पूरी जानकारी नहीं थी, लेकिन उन्होंने बताया कि कंपनी का नाम हिंदुस्तान मोटर्स है। मुझे तुरंत याद आया की मैंने कुछ समय पहले उनके जनरल मैनेजर को इंटरव्यू दिया था। तब मैंने फॉलोअप भी किया था लेकिन कोई जवाब नहीं मिला तो मैंने सोचा था की वो नौकरी मुझे नहीं मिली ।
उन्होंने धीर से कहा, जॉइनिंग एक हफ्ते पहले की थी। पत्र देर से पहुँचा, शायद गाँव की धीमी डाक सेवा की वजह से। ट्रेन ने फिर से सीटी दी और चल पड़ी।
अपनी सीट तक पहुँचते पहुँचते मैं सोच रहा था, मेरे पास नौकरी थी, लेकिन तकनीकी रूप से, मैं रिपोर्टिंग की डेट मिस कर चुका था। फिर भी मुझे निर्णय लेने में देर नहीं लगी। मैंने पास में बैठे एक यात्री, जिसके पास आरक्षित सीट नहीं थी, से कहा, “आप मेरी सीट ले लीजिए। मैं जल्दी उतर रहा हूँ — मुझे किसी से मिलना है।”
अगली सुबह ट्रेन भोपाल पहुँची, और वहाँ से मैंने एक शेयर टैक्सी पकड़ी इंदौर के लिए। सुबह 11 बजे मैं इंदौर में था। एक घंटे की बस यात्रा के बाद हिंदुस्तान मोटर्स के गेट पर पहुँच गया जो की इंदौर शहर के इंडस्ट्रियल एरिया के एक बहुत बड़े हिस्से में विराजमान थी।
गेट पर मैंने गार्ड से कहा कि मुझे श्री भौमिक, जो की जनरल मैनेजर है उनसे मिलना है। उसने पूछा, क्या अपॉइंटमेंट है? मैंने कहा नहीं, लेकिन मेरे पास एक नौकरी के लिए ऑफर है। उसने मुझे अंदर जाने दिया।
पता चला कि कंपनी के दो हिस्से हैं — नया हिस्सा जहाँ कुछ नया वाहन बन रहा है, श्री भौमिक यही पोस्टेड थे, और एक पुराना हिस्सा, जहाँ सुज़ुकी इंजन बनाए जाते थे। मुझे बताया गया कि भौमिक जी पुराने ऑफिस में गए हैं किसी मीटिंग के लिए।
अंदर रिसेप्शनिस्ट को नहीं पता था कि वो कहाँ हैं, और उन्होंने सुझाव दिया कि मैं वापस नई बिल्डिंग में जाकर इंतज़ार करूँ। मैं कोई ऐसा काम नहीं करना चाहता था जिसमे उन्हें खोने की जरा भी गुंजाईश हो । मैंने पूछा, क्या मैं यहीं लॉबी में इंतज़ार कर सकता हूँ। उन्होंने कहा, हाँ, क्यों नहीं । थोड़ी देर बाद रिसेप्शनिस्ट ने कहा की वो लंच के लिए जा रहीं है, मुझे याद आया कि मैंने पिछली रात के बाद से कुछ नहीं खाया था।
मैं इंतज़ार करता रहा। आखिरकार मैंने देखा कि कुछ लोग बाहर की ओर जा रहे हैं। मैं भौमिक जी को तुरंत पहचान गया और झिझकते हुए उनके पास गया।
“माफ़ कीजिए, श्री भौमिक,” मैंने कहा। “उम्मीद है आप मुझे पहचान गए होंगे ”
उन्होंने मुड़कर विनम्रता से कहा, “चेहरा जाना-पहचाना लग रहा है, लेकिन ठीक से याद नहीं आ रहा है ।”
“मेरा नाम राम अग्रवाल है। आपने कुछ समय पहले मेरा इंटरव्यू लिया था। मुझे अभी अभी आपका ऑफर लेटर मिला, पर वो ज़रा देर से पहुँचा। क्या वह पद भर गया है?”
तभी उनके एक सहयोगी ने उन्हें याद दिलाया कि कैंटीन में लंच मीटिंग है। उन्होंने बाकी ऑफिसर्स को कहा कि आप लोग चलिए और वो जल्द ही वहाँ शामिल होंगे। फिर मेरी तरफ देखा, कुछ पल रुके, और बोले, “इतनी अनिश्चितता के बावजूद, तुम यहाँ तक आ गए हो, कुछ तो बात है। एक बात बताओ, क्या तुम्हे ये नौकरी चाहिए?” मैंने कहा – हाँ ।
वो बोले, “ठीक है फिर। कल सुबह 8 बजे आ जाना ।”



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